रांची, झारखंड (UNA) : झारखंड के गठन के 25 साल पूरे होने के बावजूद राज्य में विकास और आदिवासी अधिकारों के बीच टकराव लगातार बढ़ता दिख रहा है। खनिजों, जंगलों और प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर यह भूभाग देश की आर्थिक धुरी माना जाता है, लेकिन इसके मूल निवासी समुदाय आज भी गरीबी, बेरोज़गारी और विस्थापन के संकट से जूझ रहे हैं। राज्य बनने के समय यह उम्मीद जताई गई थी कि स्थानीय समुदायों को भूमि, रोजगार और शिक्षा के बेहतर अवसर मिलेंगे, मगर जमीनी हालात इस दावे के उलट दिखाई देते हैं।
खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के विस्तार के चलते कई आदिवासी परिवारों को अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में पलायन करना पड़ा है। लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता ने ग्रामीण इलाकों में आजीविका के पारंपरिक साधनों को कमजोर किया है, जिससे युवा बड़े पैमाने पर महानगरों की ओर काम की तलाश में निकल रहे हैं।
भूमि अधिकार, वन संसाधनों पर नियंत्रण और स्थानीय स्व-शासन जैसे मुद्दों पर नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन की कमी भी एक बड़ी चुनौती है। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि विकास मॉडल ने संसाधनों के दोहन पर जोर दिया, लेकिन लाभ स्थानीय जनता तक पहुँच नहीं पाया।
राज्य की सामाजिक और आर्थिक प्रगति को संतुलित दिशा देने के लिए ज़रूरी है कि सरकार और स्थानीय संस्थाएँ आदिवासी समुदायों की जरूरतों, परंपराओं और अधिकारों को केंद्र में रखकर नीतियाँ बनाएं, ताकि झारखंड की वास्तविक क्षमता आने वाले वर्षों में सही मायनों में उजागर हो सके। - UNA















