नई दिल्ली (UNA) : “एक दिन शरीर मना कर देता है, दिमाग विद्रोह करता है और दिल धीरे-धीरे कहने लगता है: ‘बहुत हो गया।’” में प्रकाशित लेख “Burnout and the myth of ‘success’” में यह सच—जो कई लोग अनदेखा कर जाते हैं—बहुत जुबान के साथ सामने आता है।
लेखकार Srinath Sridharan और Nischal Joshipura बताते हैं कि आजकल की सफलता की दौड़ (“rat race”) में हम कई बार इतनी तेजी से भागते हैं कि खुद से और अपने सपनों से दूर हो जाते हैं। शुरू में लक्ष्य हमें प्रेरित करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, वह प्रेरणा दबाव में बदल सकती है।
उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी इस तरह दिखती है: सुबह अलार्म के साथ उठना, फोन की नोटिफ़िकेशन देखना, कॉफ़ी से दिन की शुरुआत, ईमेल और मीटिंग्स का सिलसिला, और हमेशा “अगली मंज़िल” के लिए दौड़ना। लेकिन जब हम एक और लक्ष्य पूरा कर लेते हैं, तो पता चलता है कि फिनिश लाइन बदल गई है — और हर जीत सिर्फ और काम का संकेत हो गई है।
लेख में यह भी कहा गया है कि बुर्नआउट किसी एक दिन अचानक नहीं आती — यह धीरे-धीरे घुसती है, उन अनदेखी छोटी चीज़ों के ज़रिए जैसे खाना छोड़ देना, सिर दर्द की अनदेखी करना, या परिवार-इवेंट्स में समय न दे पाना।
डब्लूएचओ (WHO) इसे “ऑक्यूपेशनल फ़ेनोमेनन” कहती है — यानी यह सिर्फ एक व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि काम करने की संस्कृति की ही एक बीमारी है।
लेख में एक दिलचस्प रूपक दिया गया है: बुर्नआउट को पाँच हिस्सों में बाँटा जा सकता है —
उत्साह की शुरुआत (जहाँ हर चीज़ नई और रोमांचक लगती है),
धीरे-धीरे जागरूकता कि मेहनत और इनाम संतुलन नहीं बना रहे,
“ब्राउट (बर्न-आउट के बीच का दौर)” — चिड़चिड़ापन, थकान, दूरी महसूस करना,
पूरी गिरावट — भावनात्मक और शारीरिक थकान, उठने का मन न करना, और
“फीनिक्स मोमेंट” — जब सब गिर-गिर कर हमें फिर से यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम क्या बनाना चाहते हैं।
लेख यह स्पष्ट करता है कि बुर्नआउट सिर्फ़ नौकरी तक सीमित नहीं है — यह हमारी ज़िंदगी, रिश्तों और हमारे “मैं” पर असर डालती है। यह इंसानों को मशीन बनाकर देखती है, उन्हें भावनात्मक और रचनात्मक रूप से ख़ाली कर देती है।
समाधान की राह भी लेख में दिखाई गई है:
खुद की ऊर्जा की रक्षा करना सिर्फ “आलस्य” नहीं, बल्कि “बुद्धिमानी” है। हमें अपने आप को फिर से खोजने का समय देना चाहिए, न कि सिर्फ़ और तेज़ दौड़ना जारी रखना।
संगठन / कंपनियों को यह समझना चाहिए कि मेहनत को बढ़ावा देना ठीक है, लेकिन अगर यह मानव (इंसान) को जला देता है, तो लंबे समय में वह टिकाऊ नहीं रहेगा। उन्हें मानव कल्याण (well-being) को प्राथमिकता देनी चाहिए।
व्यक्तियों के लिए यह संदेश है कि “रनिंग बंद करना” हार नहीं है — बल्कि यह अपनी गति को दोबारा चुनने, खुद के लिए पल निकालने और सचमुच की सफलता की परिभाषा पर फिर सोचना है।
लेख के अंत में एक सलाह दी गई है: जब अगली बार आपका इनबॉक्स भरा हो, एक पल रुकें। अपनी साँसों पर ध्यान दें। याद रखें — आप पीछे नहीं हैं, बल्कि अपने आपको वापस पा सकते हैं। - UNA
















